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और ज़ाया ना होती





गर यूँ ही बेवजह से मिल जाते तुम
एक शाम और ना ज़ाया होती..
महफिलें तो हर रोज़ लग जाती हैं
एक नज़्म और ना ज़ाया होती..

आ जाते बिन बुलाए दरवाज़े पर
एक याद ना ज़ाया होती..
हम ढूँढ़ते ना तुम्हें दिल-ए-मुज़्तर हुए
फिर ये मेरी बेख़ुदी ज़ाया ना होती..

बड़े शौक़ से रखे हैं कुछ जाम बचा के,
गर यूँ ही बेवजह मिल जाते तुम,
भर के जाम गैरों के 
ये साक़ी ना ज़ाया होती.. 
ये साक़ी ना ज़ाया होती..

Himadri
23 Nov 2019

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