ऐ वक्त, तू गवाह है..
कभी वो सजी हुई वैश्या सा बिछा है मेरे आगे..
और ये भी तूने देखा है,
कैसै सुबह के सूरज सा जला है वो
देखा है यह भी
बनारस के पाखंडी सा घूनी रमा
और जो फिर हर रात वो
गले में इतर, होंठ लाल कर
एक नई कली मसलने चला..
देखा है तूने मुझे भी
उसके सिर को रखा है गोद में
एक माँ की तरह
और परोसा है खुद को मैने
भरे वॅक्षो से मेघ की तरह
ए वक्त ,तू गवाह है
वो बिछा है मेरे आगे,
वेश्या की तरह..
मुड़ा ना वो,
गुजरा जब मेरे
शामियाने से आगे, नज़रें बचा
फिर भी गिरी उसकी निगाहें
कनखियों से हमपर
के देख ना लूँ मैं कहीं
उसके कुर्ते पर पड़े
नयी कली के निशान..
मेरे खरीदार ने निभाये हैं
किरदार कई,
कभी मेरी तरह, कभी अपनी तरह...
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